Friday, November 29, 2019

चाहत हो जाती हूँ


सप्तरंगी इंद्रधनुष,
खुश्बुएं हजार किस्म,
भिन्न रूप-आकार लिए,
खिलती हूँ,खिलखिलाती हूँ,
प्रकृति के फूलों की महक सी,
मनमोहक बनके दिलों में समाती हूँ,
जन्म से अंत तक बस रौनकें जगाती हूँ,
जब कभी मैं पुष्प सी मनोकामना हो जाती हूँ।

अपने मन-पंखों में,
कई रंग-आकार लिये,
यहाँ-वहाँ पवन सुगंध-संग,
घूम-घूम,दूर पुष्पों में रम जाना,
इतराना,खुद में ही खोए हुए इठलाना,
नयनों की इक कोमल कामना हो जाती हूँ,
के नेत्रों के रास्ते उतर,सभी दिलों में समाती हूँ,
जब कभी भी मैं तितली सी शोख़ चंचल हो जाती हूँ।

मधुर से गीत-सुर,
जादुई शब्द-जाल बुन,
लहरियों के उतार-चढ़ाव,
ऊँचे से ऊँचे और नीचे से नीचे,
रागों के आरोह से अवरोह तलक,
निम्न सुर से सप्तक की हर उठान तक,
हर जन मानस की मन-तन्द्रा पे छा जाती हूँ,
जब मैं मधुर संगीत की इक सुरलहरी हो जाती हूँ।

ऊँचे पर्वतों के हौसले,
गहरी सी सागर कि साँसें,
धैर्य के लहलहाते हरेभरे खेत,
रेगिस्तान की जलती जीवित रेत,
वृक्ष,पुष्प,झरने,बादलों का बहकना,
डूबते सूरज के रंग संग,पवन का महकना,
जीवनपूर्ण रिमझिम के संग खुशियां बढ़ाती हूँ,
जब मैं प्रेम और त्यागमयी धरती सी बन जाती हूँ।

                                                     - जयश्री वर्मा

Friday, November 8, 2019

बहुत कुछ अनकही

मित्रों !मेरी इस कविता कि कुछ पंक्तियाँ समाचार पत्र " दैनिक जागरण " में छप चुकी हैं , आप लोग भी इसे पढ़ें।


रात बड़ी खामोश थी पर,बहुत कुछ अनकही कह गयी,
उफ़ भी न बोली और , बहुत कुछ असहनीय सह गयी ।

 माँ की आधी लोरी के बीच,सोया हुआ नन्हा सा बच्चा,
प्रिय का किया वादा,थोड़ा सा झूठा और थोड़ा सच्चा।

मंत्रियों की राजनीतिक बातें,और बातों की गहरी घात,
दिन भर की झिकझिक,रात शराब संग हुई बरदाश्त।

बेला की मादक खुशबू,घुंघरूओं की छलिया छन-छन,
हर वर्ग के आदत से लाचार,पहुँच जाते हैं वहां बन-ठन।

मन की गन्दगी के वशीभूत,तन की गन्दगी में लोटते हैं,
घर पर राह तकती पत्नी के,मन में डर के घाव फूटते हैं।

रौशनियों में डूबी,खिलखिलाहटों की दर्द भरी रवानी है,
पलभर खुशी की तलाश की,लुटने-लुटाने की कहानी है।

किसी के हाथ मेहँदी सजी,कोई विवाह के नाम जल गयी,
जीवन संगिनी थी,तो फिर क्यों,दहेज की बलि चढ़ गयी ।

बड़े-बड़े खिलाड़ियों के खेलों की,होती करोड़ों की सेटिंग,
कौन कितना खेलेगा उसके ही,हिसाब से है उसकी रेटिंग।

कभी राज़ को राज़ रखने के बदले,कोई जान ली जाती है,
फिर अगले दिन उजाले में,झूठी तहकीकात की जाती है।

दशहरा,दुर्गापूजा,रमजान,क्रिसमस के,जश्न भी तो होते हैं,
कहीं बहुतों को समेटे गोद में,सुलगते शमशान भी रोते हैं।

कहीं घरों में चुपचाप खौफ़नाक,इरादों संग लुटेरे घुसते हैं,
निरीह,एकाकी बुज़ुर्ग,लाचार उनकी,दरिंदगी में पिसते हैं।

कहीं पे झाड़-फूंक,गंडे-ताबीजों की,तांत्रिक लीलाएं होती हैं,
कहीं धूनी रमाते बाबाओं की,खौफ़नाक रासलीलाएँ होती हैं।

सड़कों पर रातों में दौड़ती,100 नंबर पुलिस गश्त करती है,
मगर वो वारदातियों को कभी भी,रंगे हाथों नहीं पकड़ती है।

रात बड़ी खामोश थी पर,बहुत कुछ कहा,अनकहा कह गयी,
उफ़ भी न बोली ये,और बहुत कुछ,असहनीय सा सह गयी ।

                                                                ( जयश्री वर्मा )



Tuesday, September 17, 2019

कुछ-कुछ जाना है

कलियाँ कब,क्यों चुपके से,फूल बनके महकें ?
ये भँवरे गुन-गुन सुन ज़रा,क्या कुछ हैं कहते ?
तितलियाँ भी क्यों रंग जादुई,परों में हैं भरतीं ?
डाल-डाल क्यों रुकतीं,और फिर से हैं चलतीं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

कोयल कुहू-कुहू क्यों,मतवाले गीत है गए ?
पपीहे की पीहू-पीहू क्यों,यूँ शोर सा मचाए ?
डालियाँ पवन संग क्यों यूँ,झूम-झूम हैं जाएं ?
सर-सर के मदभरे से क्यों,गीत फ़ुसफ़ुसाएं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

हरी-भरी चादर ओढ़ के.ये धरा क्यों इतराए ?
आकाश भी धरा पे क्यों,रीझा-रीझा सा जाए ?
क्षितिज पे लगें दोनों ही,साथ मिलते से जाएं ?
तराने प्रेम भरे से भला क्यों,ये संग गुनगुनाएं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

इक शून्य से ये जन्मी और,विराटता है इसने पाई ,
ये सृष्टि कहाँ से चली,और कहाँ तक हमें ले आई ,
उत्थान,पतन,अमरत्व की,अजब सी ये कहानियां ,
रीतों,गीतों की जीवंत,खिलखिलाती हुई जवानियाँ ,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।


गुज़रता वक्त क्या है कहता,सुनो तो मन लगा के,
ध्यान से सुनो तो ज़रा,भावों का प्रेम-दीप जगा के,
कुछ आमंत्रण सा छुपा है,इन बहकती हवाओं में,
शायद राज़ उजागर हैं,हमारी-तुम्हारी वफाओं के,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

                                                              - जयश्री वर्मा

Monday, September 2, 2019

ज़िन्दगी में ढली मैं

माँ की कोख में रची मैं,ज़िन्दगी में ढली मैं ,
पिता की बाहों के पालने में,खेली-पली मैं ,
आँगन की चिरैया सी,चहक-चहक डोली ,
मीठी सी मुस्कान संग,खिलौनों की झोली।

भाई-बहन के रिश्ते का,पाया ढेर सारा प्यार ,
सखियों संग सवालों,और जवाबों की बहार ,
हर पल-दिन गुज़रा,ढलीं चांदनी सी रातें भी ,
यूँ बदले कई मौसम,गुज़रीं कई बरसातें भी।

ख़्वाब हुए जवान जब,यौवन ने रंग दिखाया,
कल्पनाओं ने तिलस्मयी,जहान इक बनाया,
सपने क्या थे बस,इक जादुई सी दुनिया थी ,
सतरंगी ख़्वाबों से भरी,दिल की पुड़िया थी।

फिर माँ की चिंता और बाबुल का था हिसाब ,
पसंदी न पसंदी के,अजीब से सवाल-जवाब ,
फिर सात फेरों संग,बेटियां पराई बनाने की ,
ऐसी ही तो ये रीत है,घर-आँगन छुड़ाने की।

संग आई थी प्रीत लिए,हर रिश्ता निभाने को ,
पर दिखीं तौलती सी निगाहें,बातें उलझाने को ,
तमाम उम्मीदें थीं,जिम्मेदारियों का बोझ था ,
बात-बात पे टिप्पणी थी,ताना और क्रोध था।

ख़ुशी,उत्साह,ख़्वाबों ने,जैसे उदासियाँ ओढ़ीं ,
प्रश्न,प्रश्न और प्रश्नों ने,उम्मीदें सारी ही तोड़ीं,
अकेले ही चलना था,अकेले ही सम्हलना था ,
ससुराल के नियमों में,अकेले ही ढलना था।

जो अपना बनाने को लाए थे,तो अपना बनाते ,
पराया कह पुकारा,क्यों ये शिकवा,शिकायतें,
बेटे संग उसकी सहचरी को भी,गले से लगाते ,
वंश बढ़ाने वाली का,काश सम्मान भी बढ़ाते।

तो न घटतीं बेटियां,न चढ़तीं दहेज़ की बलि ,
बेटी पैदा होने पे,घरों में न मचती यूँ खलबली ,
न समाज में असुरक्षित यूँ,माहौल ही मिलता ,
दोयम दर्जे का अहसास,यूँ मन में न पलता।

तो जीवन के मायने,अलग ही कुछ और होते ,
बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप,यूँ कभी न रोते ,
बेटी के आगमन पे भी,घरों में जश्न खूब मनाते ,
गर बहू-बेटियों को भी,हम बेटों सा अपनाते।

                                               - जयश्री वर्मा


Monday, August 26, 2019

तुम्हारे जाने के बाद

तुम क्या जानो के ऐसे,तुम्हारे जाने के बाद ,
कैसा बेबस सा हुआ,ये मेरा मन,ये मेरा तन ,
के देहरी पर निगाह,ठहर सी जाती है मेरी ,
जहाँ पे कि पग आहटें,पुकारती हैं तुम्हारी। 

गर कुछ भी न था,तो फिर ये संतति हमारी ,
जो है हमारे-अपने प्रेम की अमिट निशानी ,
जिस पर तुम्हारी,झलक का घना पहरा है ,
जो आधा तुम्हारा,और आधा मेरा अपना है।

न जाने कितनी ही रातें,आँखों में जागी हूँ मैं ,
बिन आँसू के रोई हूँ,ऐसी इक अभागी हूँ मैं ,
के दूर होकर भी,मेरे साथ सदा रहते हो तुम ,
मेरी यादों,बातों,साँसों में,सदा बसते हो तुम।

उफ़! इतनी विरक्ति के साथ तुम बने रहे मेरे ?
क्या सब झूठ था?वो समर्पण,वो बाहों के घेरे?
मैं तो स्वयं को हमेशा से ही,धन्य मानती रही,
तुम सिर्फ मेरे हो,बस ये एक सच जानती रही।

कुछ आभास तो हुआ था,पर हृदय न माना था ,
ये दृष्टिभ्रम है इक,मेरे अंतर्मन ने यही जाना था ,
ये नहीं जानती थी कि,यूँ अनहोनी बुला रही हूँ ,
खुद के अन्त की,मैं खुद ही,कहानी बना रही हूँ।

सदा दिल ने माना,मैं जिस्म और जान हो तुम ,
के मेरी इस जीवन-कहानी का,प्रमाण हो तुम ,
तुम्हारे ही साथ में,मैं अपने,ये दिन-रात ढालूँगी,
हाथों में हाथ ले,मैं जीवन के रास्ते निकालूँगी।

भरोसा था मुझे कि मेरा प्यार,कहीं नहीं जाएगा ,
के भला मुझ जैसा सच्चा दिल,कौन नहीं चाहेगा,
बड़ा ही गुरूर था खुदपे,के सब सम्हाल लूँगी मैं ,
नहीं जानती थी के ऐसे किस्मत उछाल लूँगी मैं।

न जाना था ये फरेब,मेरी ही कहानी बन जाएगी,
इस दिल की धड़कन से,भावनाएँ  दूर हो जाएँगीं,
अब जाना कैसे,आँखों के ख्वाब,बैरी हो जाते हैं,
और कैसे,जिस्म से,जिस्म के साए,गैर हो जाते हैं।
                                          
                                                     - जयश्री वर्मा








  




Monday, August 5, 2019

ये क्यों है ?

ये अपनों के ही दरमियान,खड़ी दीवार क्यों है ?
के आज आदमी ही,आदमी का शिकार क्यों है ?
मशीनी से जिस्म हुए,भावों के समंदर रीत गए ,
ये भाई-भाई के बीच में,खुली तकरार क्यों है ?

बचपन के दिन नहीं दिखते,अब बेफिक्र,सुनहरे ,
सबको ही शक से देखते हैं नवनिहालों के चेहरे ,
बोल फूटते ही,ये सीखते हैं,फरेबों के ककहरे ,
ये यूँ इक दूजे को,हराने की लगी कतार क्यों है ?

जवानी नहीं है अब,मासूम और शरमाई हुई सी ,
वादे,वफ़ा की बातें,अब करता नहीं है कोई भी ,   
सब कुछ ही खुलापन लिए,खुली किताब सा है ,
ये दो दिलों के बीच,बिछा हुआ व्यापार क्यों है ?

बुढ़ापे को निराश्रित होने के,भय की आहट है ,
बस-इंतज़ार,याद,आँसू वृद्धाश्रम की चौखट है ,
के सेवा-सम्मान कैसे,खो गया दुनिया में कहीं ?
ये जीते जी खोदी गई,रिश्तों की मज़ार क्यों है ?

शुष्क से माहौल में जन्मे-पले,बंजर दिल लोग ,
ये फूल-तितली,चाँद-तारों की,बातें नहीं करते ,
क्यूँ अपनी ही तलाश में,भटक रहा है हर कोई ,
के हर ज़िन्दगी को,ज़िन्दगी की तलाश क्यों है ?

ये सवाल कौंधते हैं,हर तरफ,सवालों को लिए ,
बुझते नहीं हैं,टिमटिमाते हुए,आशाओं के दिए ,
इन्हीं आशाओं के सहारे,कट जाती है हर उम्र ,
मुस्कुराहटों को ओढ़े,भविष्य की उम्मीद लिए।  

                                                   - जयश्री वर्मा



Saturday, July 27, 2019

ऐसे कितने ही जाधव

न जाने कितने जाधव,कितनी विदेशी जेलों में फंसे हैं,
आँखों में झाइयाँ,शरीर है ढांचा,पर बेड़ियों में कसे हैं।

ये गालियों और लातों की रोटी से,मन का पेट भरते हैं ,
कल की आशाएं संजोए ये,रोज तिल-तिल के मरते हैं।

ये रात-रात,दर्द-दहशत संग,ख्यालों में जागा करते हैं ,
और दिन-दिन भर,जान-रहम की,दुआ माँगा करते हैं।

हर त्यौहार,सपनों में ही ये,अपनों के संग-साथ जीते हैं ,
उनके घर भी होली,क्रिसमस,बैसाखी,ईद कहाँ मनते हैं?

घर की दहलीज़ पे,उनकी आहट की उम्मीद पलती है,
पत्नियाँ उहापोह में,तीज-करवाचौथ कर मांग भरती हैं।

कितने बच्चों को अपने पिता की स्मृति ही नहीं कुछ भी,
दया-तिरस्कार ही नियति है,यही उनका जीवन सत्य भी।

बच्चे भी सुनी बातों,और फोटो के संग,यूँ ही पल जाते हैं ,
हालात के संग वे सब,खुद-ब-खुद,बस यूँ ही ढल जाते हैं।

ये बच्चे मन की उम्मीदों को,मन में ही दफ़न कर लेते हैं,
नहीं है पिता का साया,जान के कोई सवाल नहीं करते हैं।

बूढ़े माँ-बाप की आँखों के,उमड़ते समुंदर भी सूख जाते हैं,
अंतिम क्षण में औलाद को,देख पाने के ख्वाब टूट जाते हैं।

देशों की सरकारों के प्रयास भी नाकाम ही साबित होते हैं,
मीडिया वाले बस उम्मीद,कभी असमर्थता का राग रोते हैं।

ऐसे ही,कितने ही जाधव,न जाने,कितनी ही जेलों में फंसे हैं,
जिनका शरीर उनके साथ है,पर दिल अपने देशों में बसे हैं।

                                                                        - जयश्री वर्मा  


Monday, July 1, 2019

कहाँ से लाओगे ?

यूँ चाहतों का जाल,भेद कर,तुम कहाँ जाओगे ?
जो गर चाहोगे भूलना तो भी,भुला नहीं पाओगे ,
के हमारा हंसना,रूठना,उलझना,मान-मनुहार ,
बंध गए हो जिस बंधन में,वो कैसे काट पाओगे ?

वो मेरा इंतज़ार करना,रूठना,फिर मान जाना ,
फिर तुम्हारी इक इच्छा पे,वो मेरा कुर्बान जाना ,
तमाम पहरों को तोड़,मैं तुम तक चली आती थी ,
दुस्साहसपूर्ण ये सब बातें,तुम कैसे भूल पाओगे ?

मुहब्बत में दूरियां,बेचैनियाँ बढ़ाएंगी,मैंने माना ,
अगर राहें जिक्र करें मेरा,तो तुम लौट ही आना ,
के फूल,बाग़,नदी,और गलियां पूछेंगे बार-बार , 
अपने ही क़दमों के खिलाफ,कैसे बढ़ पाओगे ?

ऐसे किसी के जज़्बात से,खिलवाड़ नहीं करते ,
गर किसी से हो प्यार तो,यूँ तकरार नहीं करते ,
छुड़ाया जो हाथ हमसे,हम रो ही देंगे कसम से ,
मेरी नींदें उजाड़,अपने ख्वाब कैसे बसा पाओगे ?

ढूंढोगे लाख उम्र के बीते लम्हे,पर ढूंढें न मिलेंगे ,
बीते मौसम जैसे फूल,दूसरे मौसमों में न खिलेंगे ,
किसने कहा के काँच,टूट के फिर जुड़ सकता है ?
टूटी हुई उम्मीदों की लौ,फिर कैसे जगा पाओगे ?
                                           
के गर जा ही रहे हो,इक बार मुड़ कर देख लेना ,
मेरी आँखों की हसरत,इक पल को महसूस लेना ,
ये चाहत की ख्वाहिश,दोनों तरफ बराबर ही थी ,
ये सच झुठलाने की हिम्मत,तुम कहाँ से लाओगे ?

                                                                   - जयश्री वर्मा  

Wednesday, May 29, 2019

बनाते नहीं हैं


सच्चाई,सुकून,भरोसा,ये जीवन की खुश्बुएं हैं,
किसी से गर जो मिले,तो उसे भुलाते नहीं हैं,
ख्वाबों में जो खोया निश्छल,मुस्कुरा रहा हो,
ऐसी नींद से,उसको कभी भी,जगाते नहीं हैं।

जो कोई रात-रात जागा हो,इंतज़ार में तुम्हारी,
उससे मुख मोड़के,कभी भी कहीं जाते नहीं हैं,
जिसकी हँसी में,बसी हों,सारी खुशियाँ तुम्हारी,
उसके माथे पे,शिकन कभी भी,बनाते नहीं हैं।

जो साया बनकर आया हो,जन्म भर के वास्ते,
दोष उसके,कभी भी किसी से,गिनाते नहीं हैं ,
तुम्हारे घर की इज़्ज़त,तुम्हारी ही तो पहचान है,
सड़क पे उसकी बात कभी भी,लाते नहीं हैं ।

धोखा,झूठ और फरेब,जीवन के कलंक ही हैं,
प्रेम की नाव को मझधार कभी,डुबाते नहीं हैं ,
के गलत काम करने से पहले,सोचना कई बार ,
इंसानियत को कभी भी,दागदार बनाते नहीं हैं।

गम को भले ही भुला देना,काली रात जान के,
ख़ुशी के,उजले-लम्हे कभी भी,भुलाते नहीं हैं,
के दोस्ती के नाम,जो हाजिर हो,हर वक्त पर,
ऐसे रिश्ते में,शक़ की दीवार,यूँ उठाते नहीं हैं।

सुख-दुःख के दिन-रात तो,आते-जाते ही रहेंगे,
कभी हिम्मत नहीं हारते,कभी घबड़ाते नहीं हैं,
के तमाम ज़ख्म दिए हों,जिन रिश्तों ने बार-बार,
उन रिश्तों को गाँठ जोड़-जोड़,चलाते नहीं है।

                                              ( जयश्री वर्मा )

Monday, April 29, 2019

चिट्ठी तेरे नाम लिखी

सुन रे प्रिय! मैंने इक चिट्ठी,तेरे नाम लिखी,
इक दिन सूना,और अधूरी इक रात लिखी,
के जिसमें है व्यथा,कुछ कही,अनकही सी, 
कुछ तो है सहनीय,और कुछ अनसही सी। 

तमाम हलचल में भी,सूना सा दिन है बीता,
हंसी-ठहाकों बीच,मन का कोना रहा रीता,
यूँ कलियों,भवरों की,अठखेलियां थीं बड़ी, 
पर मेरी ये मन बगिया तो,है सूनी सी पड़ी।

शाम लहरों के संग,खेलती देखी इक नैया,
कैसी बेफिक्र डोलती थी,संग था खेवईया,
भीड़-भरे जग में,है मेरा मन अकेला यहाँ,
बेबस सी नज़रें मेरी,तुम्हें ढूँढतीं यहाँ-वहाँ।

रात को चाँद के संग,तारों की ठिठोली थी,
पतंगे ने रौशनी संग,कई कसमें बोलीं थीं,
कैसे-कैसे ख़याल मचले,जो के न हुए पूरे,   
रातें गुजरीं पलकों में,ख्वाब भी रहे अधूरे।

रोज के ये दिन रात मेरे,ऐसे ही गुज़रते हैं,
मेरे मन के भाव यूँ ही,वक्त से झगड़ते हैं,
तुम आओ तो जीवन की,ये जंग जीत लूँ मैं,
अपनी सारी प्रीत देकर,तुम्हें खरीद लूँ मैं।

मन उड़ेल दिया सारा,कुछ भी न सुहाता है,
तुम बिन तो मुझे,अब ये जहान नहीं भाता है,
सुन प्रिय! मैंने इक चिट्ठी,तेरे नाम है लिखी,
इस अधूरे से मन की,अधूरी सी चाह लिखीं।

                                            - जयश्री वर्मा  



Friday, March 15, 2019

सुंदर ख्वाब

अगर प्यार जो हुआ है तो,हो भी जाने दो,
ये दिल जो खिला है तो,खिल भी जाने दो,
ये इक तिलस्मयी,दुनिया का आगाज़ है,
चाहत को मीठे सपनों में,खो भी जाने दो।

इस दुनिया का क्या है,ये तो नहीं मानेगी,
नवप्रेम की इस पुकार को,ये नहीं जानेगी,
दुःख देने में तो इसे,बड़ा ही मज़ा आता है,
छोड़ो इसे,नया अफसाना,बन भी जाने दो। 

के हमदम सबके,नसीब में नहीं है मिलता,
ये फूलों का खिलना,सबको नहीं है दिखता,
बागों की खुश्बूएँ भी,सबको नहीं हैं रिझातीं,
ये प्रेम है निर्बन्ध,उन्मुक्त बह भी जाने दो।

ये चाँद-तारों की बातें,सबको कहाँ हैं आतीं,
कसमों,वादों की रातें,सबको नहीं हैं भातीं,
सबके कदमों पे,यूँ इंद्रधनुष नहीं हैं झुकते,
जो बढ़े कदम इस ओर,तो बढ़ भी जाने दो।

सब नहीं जानते,अमर है,प्रेम की परिभाषा,
पतझड़ के रूठे हुओं को,रंगों से क्या आशा,
के ये जन्मों संग,जीने और मरने की बातें हैं,
क़दमों पे रखे फूल,दिल से लग भी जाने दो।  

दिलों की ये भाषा तो,दिलवाले ही जानते हैं,
शमा की पुकार तो,बस परवाने पहचानते हैं,
के सूनी डगर का राही,बनने से क्या फायदा,
बहारों का है बुलावा,तो बाहें भर भी जाने दो। 

                                            - जयश्री वर्मा


Monday, March 4, 2019

ये अजीब भटकाव

रोज सूरज का आना,और दिन का चढ़ना ,
वही किरणों का धरती पे,धीरे-धीरे बढ़ना ,
वही सड़कों पे दौड़ते हुए,लोग इधर-उधर ,
भरते हुए स्कूल-दफ्तर,खाली से होते घर।

बाजारों का शोर-शराबा,सामानों के दाम,
लेते-देते हुए लोगबाग,बस काम ही काम ,
संतुलन का कर हुनर,नट दिखाता खेला ,
जैसे साँसों संग जूझता,जिंदगी का मेला।

मनमानी की सबने,खुमारी में जवानी की,
कुछ को है रुलाया,और कुछ संग हंसी की,
जैसे किसी के हाथों डोर है,हमें नचाने की ,
थिरकती कठपुतलियाँ,हम है जमाने की। 

साँसों का ये ज्वार-भाटा,उतरता और चढ़ता ,
ऐसे ही बीते जीवन,यूँ मौत की ओर बढ़ता ,
रोज की ये कहानी,और रोज का ये दोहराव,
कुछ न हासिल होने का,ये अजीब भटकाव।

दुःख-सुख,हँसी-आँसू,कुछ खोना और पाना ,
इसी सब में भटक रहा है,ये सारा ही ज़माना,
जीवन इक अतृप्त खेल,अनबूझा,अनजाना ,
ये जन्म से मरण तक का,है अजीब हर्जाना।

बचपन से बुढ़ापे की दौड़ में,हर दिन है जीना,
अनुकूल सब नहीं मिलेगा,गरल भी होगा पीना,
के हार-जीत की हाट है ये,लेना-देना तो पड़ेगा,
तभी तो अमूल्य जीवन ये,अनुभवों में ढलेगा।


                                                - जयश्री वर्मा




Thursday, February 14, 2019

ओ बसंत फिर आए तुम


अरे ओ बसंत! फिर से आए तुम ,
इक अजब हलचल सी लाए तुम ,
तुमने रंग बिखेरे पहले धरती पर ,
और फिर खुद पे ही इतराए तुम।

रंग भरी सी शरारतें सब बिखरीं ,
खूबसूरती जवाँ चेहरों पे निखरी ,
खेतों में है लहराए,गीतों की झड़ी ,
पर मेरी पलकें तो,सूनी सी पड़ीं।

कैसे हाल कहूँ तुम्हें इस जिय का ,
इस रीते और व्याकुल से मन का ,
यूँ न मुस्कुरा ओ निष्ठुर-निर्मोही ,
ये मन सूना,रास्ता देखे पिय का।

तुम क्या जानों,कैसी,विरह-वेदना ,
हर आहट पर द्वार,चौखट तकना,
हर सरसराहट पे धड़कन बढ़ जाना ,
तुम यूँ जानबूझ के न बनो बेगाना।

अब जब आ ही गए,तो ठहरो ज़रा ,
इन नैनों में,सपने ही भर लूँ ज़रा ,
ये भ्रम ही सही,पर ये है तो सुखद ,
इस डूबते मन को,कुछ लगे भला।  

दिल को बहलाने की,ये चाल चली ,
कल्पना लोक की है,ये डगर भली ,
सपनों की गलियों में,मैं टहली बड़ी ,
यूँ फिर से,अरमानों की बलि चढ़ी।

सारे रंग-उमंग,सब ओर बिखेरते ,
ऐसे पूरी धरती को,पुष्पों से घेरते ,
अरे ओ बसंत! फिर से आए तुम ,
इक अजब हलचल सी लाए तुम।

                                  - जयश्री वर्मा

Monday, February 4, 2019

अच्छा ही होगा

अच्छा हुआ के जो,तुमने बात बोल दी,
के मन की दुखन,मेरे प्याले में घोल दी,
यूँ कहने को मैं,तुम्हारा अपना भी नहीं,
पर अपना जानके,तमाम गांठे खोल दीं। 

इस दिल को,अपने करीब जाना तुमने,
है शुक्रिया कि,मुझे अपना माना तुमने,
मैं भरोसे के पर्याय पर,सच्चा उतरूंगा,
के जब पुकारोगे कभी,तुम संग दिखूंगा।

पलकों से जो दर्द बहे,तो बह जाने दो,
दिल-दिमाग धुलता है,तो धुल जाने दो,
दिल का पत्थर सा बोझ,कम ही होगा,
घबराना मत,अच्छा ही होगा,जो होगा।

इतना मत डरो के,नज़रें ही बोलने लगें,
इतना मत हँसो के,लोग तौलने ही लगें,
के बातें न करो कभी,दिल की परायों से,
कहीं लोग छिपे ज़ख्म ही न कुरेदने लगें।

के यूँ तो अपनों के दिए,गम ही जलाते हैं,
सब कुछ व्यर्थ है,ये गुज़रे लम्हे बताते हैं,
तोड़ ही डालेंगे ये झंझावात,नहीं हैं कमतर,
के विश्वास करो,वक्त जवाब देगा बेहतर।

                                          - जयश्री वर्मा

Wednesday, January 16, 2019

बताऊँ कैसे ?

कैसे समझाऊं उन्हें यूँ रूठ के जाया नहीं करते ,
दिल नाज़ुक है,बार-बार यूँ सताया नहीं करते ,
जो उदास हो चल दिए हम,तो इल्म रहे उनको ,
लाख चाहेंगे मनाना,तो फिर मनाएंगे किसको ?

उनका यूँ जाना,कि रंगों का बिखर जाना मानो ,
के हरियाली भी,पतझड़ सरीखी लगे है मुझको ,
यूँ तो बहार आई है,और गुल भी खिले है लेकिन ,
जो जज़बात मचले हैं दिल में,दिखाऊँ किसको ?

रात का आना कि ज़ख्मों का कसमसाना जैसे ,
ख्वाबों का चले जाना कहीं,पलकों से दूर जैसे ,
चाँद उनींदा सा और,रात भी बोझिल सी हुई है ,
अरमान जो जागे हैं जेहन में,सुनाऊं किसको ?

वो दिलफरेब मुस्कान,बार-बार आती है सामने,
उनकी नज़रों की अठखेलियों के,हम हैं दीवाने,
लम्हों की ये शरारतें,और दिल बहक सा चला है,
के मचले एहसासों का,एहसास दिलाऊं किसको ?

उन राहों पे भी चला हूँ,कि जिनसे वो गुज़रे थे ,
डालों से गिरे फूल चुने,जो उन्हें छू के बिखरे थे ,
उनके दामन से खेल के,हवाएं इधर ही आती हैं ,
इन अनकहे से पहलुओं को,समझाऊं किसको ?

ऐ खुदा! जो दिलबर दिया मुझे,तो करम है तेरा,
पर यूँ इस कदर हुस्न और हठ से,नवाजा क्यों है,
गुनहगार होके भी वो,यूँ अनजान से बने बैठे हैं,
तू ही बता ये हाल-ए-दिल,उनको मैं बताऊँ कैसे ?


                                            -  जयश्री वर्मा

                                           

Tuesday, January 1, 2019

नमन आपको


पुष्प खिलें खुशियों के,जीवन में,
उल्लसित विचार हों,अंतर्मन में ,
अभिनंदन हो इस,नव संघर्ष का,
है ये नमन आपको,नव वर्ष का। 

राह हो सुगम,स्वप्न चढ़ें परवान,
सरल बनें,सुख-दुख के मेहमान,
आशीष मिले प्रभु कृपादृष्टि का ,
है ये नमन आपको,नव वर्ष का।

सदा विराजे,मृदु मुस्कान चेहरे पे,
दूरी रहे कायम,कष्ट,रोग,शोक से ,
2019 बने,आपका,चमन हर्ष का,
है ये नमन आपको,नव वर्ष का।

गुज़रा हुआ वक्त,यादों में सहेजें,
ये भविष्य आगमन,बाहों में ले लें,
नव जाल बुनें,आशाओं,संघर्ष का,
है ये नमन आपको,नव वर्ष का।

                                                                            - जयश्री वर्मा