Wednesday, August 23, 2017

ऐ वक्त

ऐ वक्त तेरा आना और फिर,चुपके से गुज़र जाना,
आना हमसफ़र बनके और,चोरों सा निकल जाना,
ये वक्त,मेरा वक्त है कह,मैंने ही तुझे अपना माना,
पर ओ दगाबाज़,तू बना न मेरा,निकला तू बेगाना।
पहली किलकारी संग ही मैंने,तुझसे नाता था जोड़ा,
तब जाकर कहीं माँ की तरफ,अपना अस्तित्व मोड़ा,
यूँ अंतरंग होके कोई ऐसे भी,अनजान बनता है भला?
कितनी आसानी से कह दिया,तुमने अब मैं तो चला।

अपना हर लम्हा,हर क्षण,मैंने तेरे ही तो नाम लिखा,
बाल्यावस्था,तरुणाई,यौवन,हर वक्त तेरे साथ दिखा,
मैंने अपनी हर सांस का,हर पल,तुझ संग ही जिया,
तूने मुझे केवल,जन्मतिथि-पुण्यतिथि में दर्ज किया?

क्या मेरा साथ,कुछ भी याद नहीं,तुम बिलकुल भूले?
हंसना,रोना,छीनना,छिपाना,वो आम के बाग़ के झूले,
तितलियाँ पकड़ना,फूलों को गिनना कि कितने खिले,
दोस्तों संग खेल में,कितने जीत-हार के पॉइंट मिले।

दरवाजा खोल फ्रिज का,देखना कि बत्ती कब जली,
मेरी कागज़ की नाव,बहते पानी में,कितनी दूर चली,
कुछ गोपनीय बातें थीं,जो बस,मेरे तुम्हारे बीच रहीं,
कुछ राज़ भरी कहानियाँ,जो हमने किसी से न कहीं।

मेरे पीड़ा के भागीदार,आंसुओं के संग,तुम भी रहे,
प्रिया की खूबियों के,सारे किस्से,तुम संग ही तो कहे,
तुम जानते हो,कब मेरे घर में,संतान का फूल खिला,
और कब मुझे नौकरी,और प्रमोशन का सुख मिला।

फिर कहाँ चूक हुई मुझसे,जो तुमने यूँ साथ है छोड़ा,
मुझे दगा देके इस बेरुखी से,मुझ संग यूँ नाता तोड़ा,
फिर क्यों एहसास कराया,ऐसा,अब वक्त तुम्हारा है,
मैं खुल के खेला यह जान,कि मुझे तो तेरा सहारा है।

मैंने क्या,जमाने ने भरोसा कर,तुझे अपना माना है,
ऐ वक्त,तू तो किसी का भी न बना,सबका बेगाना है,
तू यूँ सदियों से,अपनेपन का,जाल बिछाता आया है,
हर जीव को फंसा इसमें,तुझे,खेल खेलना भाया है।

हम अनजाने में तुझे,अपना समझ धोखा खाते रहे,
तू फिसलता गया हाथ से,हम जन्मदिन मानते रहे,
हर आते त्यौहार को हमने,पूरी शिददत से है जिया,
और अनजाने ही,उम्र के,हर पड़ाव को कम किया।

ऐ वक्त,तू मीठी छुरी से,सबको ही हलाल करता है,
गलती मनुष्य की है,जो तेरे साथ का दम भरता है,
हर किसी का वक्त तो,उसके संग ही,गुज़र जाता है,
तू सबके साथ तो है,पर किसी से,निभा नहीं पाता है।

ऐ वक्त,तेरा चेहरा अपना नहीं,बिल्कुल ही बेगाना है,
मेरा होके भी मेरा न बना,तू एकदम ही अनजाना है,
ऐ वक्त!तेरा आना और,ऐसे यूँ चुपके से गुज़र जाना,
आना जीवन बनके,और मृत्यु बन के निकल जाना।
                                           
                                                                 - जयश्री वर्मा 

Thursday, June 8, 2017

वही वादे वही कसमें

जन्म लेने के साथ ही जन्मी,
मेरी पहचान इस दुनिया में,
अजब विस्मित करें ये बातें,
जीवन मेरा ख्वाहिशें उनकी,
तमाम उम्मीदों के संग पालें,
वही मेरे वही अपने।
उंगली पकड़ के यूँ चलना,
सदा,नहीं मंजूर मुझको तो,
मुझे आवाज़ दे बुलाती राहेँ,
खुद की तकदीर गढ़ने को,
कोई न पूछे मेरी ख्वाहिश,
वही रोना वही झगड़े।

अचकचा के मैंने चुन ली हैं,
अपने अन्तर्मन की जो राहें,
किसी के रोके नहीं रुकना,
किसी के आगे नहीं झुकना,
कदम जिस भी ओर बढ़े मेरे,
वही मंजिल वही राहें।

उम्र के मौसम फिर यूँ बदले,
आँखों में इंद्रधनुष भी मचले,
के दिलबर से हुईं तमाम बातें,
और तमाम बीतीं रंगीन रातें,
फिर वो इन्तजार सदियों का,
वही गाने वही नगमे।

सारी रात के,रहे वे रतजगे,
सपने सोए से,कुछ अधजगे,
ये झुके दिल मेरा किस ओर,
पुकारे उसे बिना ओर,छोर,
भटकन मृग मरीचिका सी,
वही मायूसी वही तड़पन। 

वही बिखरना मुहब्बत का,
वही हतप्रभ सी जिंदगानी,
फिर नाम दिया उसे धोखा,
यही है जवानी की कहानी,
बस वही हर बार का रोना,
वही फरेब वही बाहें।

फिर वही गृहस्थी की चक्की,
और कपड़े,रोटी में पिस जाना ,
वही नई पीढ़ी की फिर चिन्ता,
यूँ अधेड़ावस्था का आ जाना,
वही जिम्मेदारियों का है रोना,
वही झंझट वही लफड़े।

वही अंतिम छोर पे हूँ मैं खड़ा,
के विस्मित हुआ हूँ अब खुद से,
गलत क्यूँ चुन लिया ये जीवन,
कभी नहीं सोचा था ऐसा कुछ,
ये कैसा है छल ज़िंदगानी का,
वही अफसोस वही आँसू।

अजब सी पहेली है ज़िंदगानी,
एक सी लगे सबकी ही कहानी,
सुख-दुःख का बहता सा पानी, 
कहीं जन्मे और कहीं बह चले,
बिन मंजिल की ये अजब यात्रा, 
वही आना,वही जाना।
                            
                             
                                                     ( जयश्री वर्मा )

Monday, May 1, 2017

अनजानी,अनदेखी कल्पना

स्वर्ग की कामना समाई है,हर किसी के मन में,
और दुखों से पार,पाना चाहते हैं,अपने जीवन के,
धाम दर्शन करके प्रभु के,द्वार जाने की चाह है,
सभी पूजास्थल,ऊपरवाले को मनाने की राह है,
हर कोई स्वर्ग का दिल से तलबगार है,
तो...
उसे पाने को तो मित्र मरना पड़ता है।

जीवन की तकलीफों को जो असामान्य मान बैठे हैं,
मानो सुबह शाम,रात दिन के बदलावों से ही रूठे हैं,
यही जन्म तो है सत्य,और सत्य इसकी ये कहानी,
परलोक तो है अनदेखा,इसकी कथा भी है अनजानी,
कर्मलोक को भूल तर्पण को क्यों हैं बेकल?
तो...
उसे पाने को तो मित्र मरना पड़ता है।

कोई नहीं है शख्श,धरा पे,जो कि मृत्यु को पाना चाहे,
अपना घरद्वार भूले,और भूलना चाहे,अपनी ये राहें,
तो फिर जो मिला है उसको,क्यूँ न जी भर कर जियें,
तो क्यूँ न इस जीवन का,हर स्वाद घूँट-घूँट कर पियें,
दुखों से भाग क्यों देव द्वार की है चाहत।
तो...
उसे पाने को तो मित्र मरना पड़ता है।

ये सुन्दर रंग समेटे प्रकृति,ये झरने और ये नदियां,
प्रेम में रचे बसे रिश्तों से परिपूर्ण जीवंत ये दुनिया,
सहेजे हुए सुख-दुःख से भरी परिवार की ये बगिया,
ये रिश्ते-नाते,संगी-साथी,ये सुबह-शाम,ये गलियां,
फिर देव लोक को,दिखते क्यों हैं विह्वल?
तो...
उसे पाने को तो मित्र मरना पड़ता है।

मृत्यु से लौट किसने,किसे स्वर्ग का राज़ बताया?
इह लोक त्यागने का,किसके मन ख़याल आया?
ये पतलून की क्रीज़,मैचिंग कपड़े और ये साड़ी,
ये घर-द्वार,ये हाट,ये पड़ोस-पड़ोसी ये पनवाड़ी,
ये क्रीम,लिपस्टिक,झगड़ा,रूठना,मान मनुहारी,
सावन का झूला,गीत और बच्चों की किलकारी,
इस धरती के रंग हज़ार,और खूबसूरत नर-नारी,
ये शोहरत,सलाम,ये कुर्सी की हनक की चिंगारी,
कोई भी मोह इसका,न छोड़ सका,न छोड़ सकेगा,
इस सच्चाई को त्याग,भला अनदेखी से जुड़ेगा?
स्वर्ग-नर्क तो यहीं है,जीवन जीना इक कायदा है,
यूँ अन्धकार में,भटकने का,कोई नहीं फायदा है,
ये रिश्ते नाते,ये उनका रूठना मनाना ही सच्चे हैं,
मित्रों-ये जीवन के सुख-दुःख के खेल ही अच्छे हैं,
ये जीवन है अनमोल,यूँ अन्धविश्वाश में न अटकें,
और अनजानी,अनदेखी कल्पनाओं में न भटकें।
क्यों कि-
स्वर्ग के लिये तो मित्र मारना पड़ता है।
                                           
                                                      ( जयश्री वर्मा )

Wednesday, April 19, 2017

आज तो प्रिय मेरा रूठने का मन है

आज सुनो!प्रिय तुमसे,मेरा रूठने का मन है,
बस अपना वज़ूद ढूंढना है,नहीं कोई गम है,
तुम्हारा प्यार यूँही,नापने का मन हो चला है,
तुम भूले ध्यान रखना,क्या बुरा,क्या भला है।

आज तो सर में दर्द बड़ा,यही बनाना बहाना है,
असल में तो आज यूँ ही,तुमको आजमाना है,
तौलना है कि,तुम्हें मुझसे,कितना लगाव है,
लव यू कहने में,कितना सच कितना बनाव है।

क्या अब भी तुम मुझे,देख सब भूल बैठोगे ?
क्या सारे दिन आज,संग में मेरे ही ठहरोगे ?
क्या चाय संग फटाफट,ब्रेड बटर बनाओगे ?
क्या पानी संग दौड़के,सेरिडॉन ले आओगे ?

क्या बाम मेरे माथे पे,अपने हाथों से मलोगे ?
मुझे सुकून पाता देख,मन ही मन खिलोगे ?
मेरा मन बदलने को,फिल्म कोई दिखाओगे ?
या पंचवटी की,चटपटी चाट तुम खिलाओगे ?

या कहोगे चलो तुम्हें,पार्क हवा खिला लाऊं ?
या अमूल की पसंदीदा,बटरस्कॉच दिलवाऊं ?
या फोन मिला के,मेरी माँ से बात कराओगे ?
या खुदही यहां-वहां की,सुना मन बहलाओगे ?

तुम्हारी उदासीनता से,मेरा मन बौखलाया है ,
अपना महत्व जानने का,कीड़ा कुलबुलाया है,
क्या अब तुम्हें मुझसे,मुहब्बत ही नहीं रही ?
या मैं अब पुरानी हो चली हूँ,ये बात है सही ?

ये भी कोई जीवन है,न रूठना और न मनाना ,
तुम्हारा रोज ऑफिस और मेरा टिफिन बनाना ,
या बहुत साल संग रहते,सब आदत हो गई है ,
जो थी प्यार की खुमारी,कहीं जा के सो गई है।

तुम कामकाज पे जाते हो,मैं घर सम्हालती हूँ ,
न तो तुम कुछ कहते हो,और न मैं बोलती हूँ ,
मुझे तो ये पल-छिन,बिलकुल भी नहीं हैं भाते ,
हम मशीन की तरह,रोज के ये दिन हैं बिताते।

तुम चाँद तारों की अब कोई,बात नहीं हो करते ,
ये दिन बोरियत भरे अब तो,मुझसे नहीं हैं कटते ,
सो ! आज तो प्रिय मेरा तुमसे,रूठने का मन है ,
बस अपना वजूद ढूंढना है,और नहीं कोई गम है।

                                                               (  जयश्री वर्मा  )

Monday, April 3, 2017

मुफ्त नहीं मुहब्बत मेरी

मुफ्त नहीं मुहब्बत मेरी,तुम्हें झुकना होगा,
तुम सिर्फ मेरे हो,ये वादा तुम्हें करना होगा,
धोखा नहीं चलेगा,प्यार के इस व्यापार में,
खुल के दुनिया के सामने,दम भरना होगा।

सूरज की लाली संग,आशाएं जगानी होंगी,
दिन भर मेरी गृहस्थी की,नाव चलानी होगी,
शाम ढले मेरी चाहतों के,संग ढलना होगा,
मैं हूँ शमा निःशब्द,मुझ संग जलना होगा।

सावन के सभी गीत,मेरे सुरों संग गाने होंगे,
मेरे जज़्बात पतझड़ में भी,गुनगुनाने होंगे,
घर की किलकारियाँ,गले से लगानी होंगी,
ऊँगली थाम के उन्हें,हर राह दिखानी होगी।

मायूसियों में,अपना कन्धा भी बढ़ाना होगा,
बाँहों के दायरे में बाँध कर,सहलाना होगा,
आंसुओं को मेरी पलकों में,नहीं आने दोगे,
खुशियों को कभी मुझसे,दूर न जाने दोगे।

जब मेरा ये वज़ूद,तुम्हारी पहचान बन जाए,
मेरा नाम भी जब,तुम्हारा नाम ही कहलाए,
मेरी हिफाज़त,तुम्हारे अरमान में ढल जाए,
तुम्हारे ख़्वाबों में जब,मेरा तसव्वुर घुल जाएं।

विवाह की सारी कसमों को,निभाना ही होगा,
हर सुख-दुःख में रहोगे साथ,ये जताना होगा,
कितनी भी विपत्ति हो,मुख नहीं फेरोगे कभी,
मेरे हो,मेरे रहोगे सदा,कहो यहीं और अभी।  

मौसमों के साथ,मुझे महफूज़ रखना होगा,
अपनी जान से भी ज्यादा,प्यार करना होगा,
मैं कितनी भी ढल जाऊं,संग मेरे रहोगे सदा,
सच्चा साथी होने का फ़र्ज़,पूरा करोगे अदा।

सच कहो कभी भी,भरोसा मेरा नहीं तोड़ोगे,
जीवन के झंझावातों में,अकेला नहीं छोड़ोगे ,
तब मैं तुम्हारी संगिनी,हमसाया बन जाऊँगी,
तुम्हारी हर परिस्थिति के साथ ढल जाऊँगी।
पर ----
मुफ्त नहीं मुहब्बत मेरी,तुम्हें झुकना होगा,
तुम सिर्फ मेरे हो,ये वादा तुम्हें करना होगा।

                                              ( जयश्री वर्मा )







Saturday, March 18, 2017

तुम ही बताओ
















ये निगाहें इक अजीब सा ही गुनाह किये जाती हैं,
इधर-उधर भटकती सी तुम पे ही ठहर जाती हैं।
ये ज़ुबाँ है कि लफ़्ज़ों संग खेलना शौक है इसका,
पर क्यों ये तुम्हारे सामने बेज़ुबान सी बन जाती है।

ख़्वाब हैं कि ये तो,तुम्हारा तस्सवुर सजाए रहते हैं,
पलकें हैं कि ये तो रात भर,रतजगा किये जाती हैं।
ये हाथ मेरे,हाल-ए-दिल लिख के,तुम्हें बताना चाहें,
पर ये कलम है कि,ज़माने के खौफ से घबराती हैं।

ये कदम हैं जोकि गुज़रे हैं,कई मोड़,कई राहों से,
आता है जब दर तेरा,बिन रोके ही ठिठक जाते हैं।
दिल ने तो चाहा है तुम्हें,खुद से भी ज़्यादा टूट कर,
इज़हार करना चाहे पर,अलफ़ाज़ ही खो जाते हैं।

ख़ैरख्वाहों ने कहा,ये जुनून है,राह है भरी काँटों से ,
शूल के डरसे क्या,मुहब्बत छोड़ी,किसी ने फूल से?
खुदा के बनाए इन,पाक-प्यार के एहसासों के संग,
जीवन की इस खूबसूरती को,हम कैसे नकार जाएं?

तुम ही बताओ कि कैसे हम,तुम्हें एहसास दिला पाएं,
इस दिल के इन जज़्बातों को,तुम तक कैसे पहुंचाएं?
तुम्हारे लिए कितना आसान है,यूँ बेख्याल बन जाना,
पर हम सरीखे,शमा पे मिटने वाले,परवाने कहाँ जाएं ?

                                                                 जयश्री वर्मा

Friday, March 3, 2017

होली के मतवाले रंग


इस प्रकृति के सात रंग से जन्मे कई हज़ार हैं रंग,
ख़ुशी जताते चटकीले रंग,फीके हैं दुखियारे रंग,
इस जीवन की उठापटक के टेंशन वाले न्यारे रंग,
गर जीते तो सर्वेसर्वा वर्ना हैं आरोपों के सारे रंग,
तू-तू,मैं-मैं,ऐसा-वैसा और चुभते से झगड़ालू रंग,
बैर पुराना भूल उठाओ,ये होली के मतवाले रंग। 

गीत संगीत भाव फागुनी है,अल्हड़ हुआ ये मन,
भंग मलंग करे है दिल को,फुर्तीला हुआ है तन, 
चूनर ये रंग बिरंगी मत करना,ओ रंगरेज सजन,
धमकी आज नहीं चलेगी,चाहे कितने करो जतन,
हंसी ठिठोली,नयन चतुर और चुगली करें कंगन,
रंग बरसे,तन-मन भीगे,ये होली के मतवाले रंग। 

चाचा-चाची,मुन्ना-मुन्नी,कोई बचके जाने न पाए,
रोक-टोक अब नहीं चलेगी,कुछ मनमानी हो जाए,
ऐसे कैसे जाने दूँ भौजी,मौका फिर-फिर न आए,
चिप्स,पकौड़े,कचरी ले आओ,घर में जो हैं बनाए,
पापड़,दहीबड़ा,गुझिया संग,भंग का साथ सुहाए,
चलो उड़ाएं गुलाल लाल,ये होली के मतवाले रंग। 

धरती ने भी ली अंगड़ाई,रंग रंगीली बन कर छाई,
कोयल प्रेम गीत है गाती,अमियों ने है डाल झुकाई,
भँवरों के हैं गीत रसीले,बगिया है पुष्पों की सौगात,
लाल पलाश,बुरुंश दहके हैं,फागुन की नई है बात,
शर्म हया के दौर चल रहे,मन चंचल है भाव उदात्त,
कही,अनकही सब जानें,ये होली के मतवाले रंग।

रंग बिखेर जादू सा करती,प्रकृति हुई मतवाली,
डहेलिया,पिटूनिया,पैन्ज़ी,सुर्ख गुलाबों की लाली,
तिलस्मयी रंग बिखेर ये,जहां तिलस्मयी बनाए,
सब जीवों के मन भावों में देखो,प्रेम राग जगाए,
वशीभूत हुए हैं सभी,प्रकृति के देख निराले रंग,
बुलाएं सराबोर होने को,ये होली के मतवाले रंग।
 
कैसा ये खुमार छाया और,कैसा बिखरा हुआ है नूर,
मादकता है हवाओं में फैली,तन पे है चढ़ा  सुरूर,
रंगों की होड़ चली और सबको खुद पर है गुरूर,
इन साकार हुए ख़्वाबों को,पलकों में ही रहने दो,
शब्दों को मौन करो और अँखियों से ही कहने दो,
सभी भाव बयान कर देंगे,ये होली के मतवाले रंग।

                                                                                 ( जयश्री वर्मा )

Wednesday, February 1, 2017

मन बसंत


पीले-पीले फूल खिले,सरसों से भरे हैं खेत झुके,
प्रकृति की ये छटा देख,कदम भी हैं रुके-रुके,
गेंदा हज़ारा की खिली,पंखुड़ियों की पीत छटा,
पीले से सभी फूल झांकें,हरे पत्तों की ओट हटा,
आसमान के योग से ये,खुल रहे हैं राज अनंत,
मदमाती,इठलाती सी,धरती हुई है आज बसंत।

माँ सरस्वती का वन्दन,बसंत का अभिनन्दन,
गीतों की फुहार से है,मन-मन,आनंद-आनंद,
होलिका का आह्वान,ख़ुशी,उत्साह संग-संग,
किसानों के सुर गूंजे,गुजरियों की चाल उमंग,
अठखेलियाँ,ठिठोली,ख़ुशी का नहीं कोई अंत,
हर ख़ुशी में बसंत और हर हास छलके बसंत।

तन,सांस महक रही,दिल की धड़कन है तेज़,
चूनर मोरी रंग दे बसंती,ओ रे सयाने रंगरेज,
सात सुर गूंजें नस-नस,प्रीत रच गीत संगीत,
मन विचार हैं बहके,कैसी ये प्रीत अगन रीत,
इस मीठी सिहरन का,नओरछोर,न कोईअंत,
ओ सुन पिया सँवारे!आज मेरा है मन बसंत।

                                       ( जयश्री वर्मा )

Friday, January 27, 2017

खेल राजनीति का खेलें

आओ हम मिलकरके खेल,राजनीति-राजनीति का खेलें,
देश को रखें एक तरफ और फिर सम्पूर्ण स्वार्थ में जी लें।

भिन्न-भिन्न पार्टियाँ बनाकर,चिन्ह अपनी पसंद का लगाएं ,
कमल,साइकिल,हाथी,पंजे या अन्य से,आओ इसे सजाएं।

करें घोटाले,घपले,हवाले,सबको खुली छूट है इस खेल में,
पैसे की महिमा के बल पर,कोई भी नहीं जाओगे जेल में।

देश डूबे या दुश्मन के हमले हों,कोई फर्क नहीं पड़ने वाला ,
बस इक दूजे पे आक्षेप लगाएं,यह खेल है अलग सा निराला।

किसी को विदेशी,किसी को कट्टर कह जनता को भड़काएं,
सत्र कितना भी जरूरी हो पर,हर काम में ही रोड़ा अटकाएं।

बस अपने घर को धन से भर लें,चाहे ये जनता जाए भाड़ में ,
हर तरह का कर्म कर डालें,मुस्कुराते मुखौटे की आड़ में।

रमजान में रोज़ा इफ्तारी और मकर संक्रांति में हो खिचड़ी ,
हिन्दू,मुस्लिम वोट बैंक छलावे में,ये जनता भोली है जकड़ी ।

भाषण व उदघाटन उद्घोष कर,इस पब्लिक को बरगलाएं ,
और हर मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा जा,ईशवर को भी फुसलाये।

पोशाक रहेगी सफ़ेद टोपी संग,पर कोई दाग न लगने पाए ,
सफ़ेद लिबास की आड़ में क्या करते हैं,कोई ये जान न पाए।

नए वादों के घोषणा पत्र बनाकर,मीडिया से प्रचार करवाएं ,
वादा खिलाफ़ी कर सकते हैं,पर पहले सत्ता अपनी हथियाएँ। 

स्कूल,अस्पताल,सड़क के नाम पर,धन में गोते खूब लगाएं ,
काम धकाधक होना जरूरी,चाहे सब फाइलों पे निपटाएं।

नियम क़ानून ताक पर रखकर,बस नोट की खेती उगाएं,
भूख,बाढ़ से कोई मरे तो,परिवार को,दो-दो लाख पकड़ाएं।

तुम सत्ता में रहो तो हमें सम्हालो,हम सत्ता में तुम्हें सम्हालें ,
कोर्ट,सीबीआई सब ही सध जाएगी,बेखौफ़ कुर्सी अपनालें ।

बड़ा आनंद आएगा चलो मिल,इस सत्ता का स्वाद भी ले लें ,
तो आओ हम मिल करके,खेल राजनीति-राजनीति का खेलें ।

                                                                         ( जयश्री वर्मा )





Wednesday, January 18, 2017

हमारे बाँकुरे जवान

जिनसे अपनी है सुबह शाम,वो हैं सीमाओं पर खड़े हुए,
वो प्रहरी वो सीमा रक्षक,वो जवान सीमाओं पर डटे हुए।

उनके होने से हम बेफिक्र,उनसे सुरक्षित अपना सम्मान,
उनके लिए तो बस सर्वोपरि,देश की-आन,बान और शान।

उनका भी तो है घर-द्वार,और उनका भी है अपना परिवार,
पर देश है उनकी प्राथमिकता,देश ही उनका सच्चा प्यार।

उनके लिए दिन-रात एक हैं,हरदम,हरपल सचेत वो रहते,
भारत माँ की रक्षा करने को,हंस-हंस कर सब कुछ सहते।

चाहे आंधी हो,तूफान चले,चाहे बरसें तीखे बर्फ के गोले ,
हो कैसा भी संकट,रुकावट,वो साहस संग सबकुछ सहलें।

दुश्मन कितनी कोशिश कर ले,पर इरादों को न डिगा सके,
हिम्मत उनकी है फौलादी,उन्हें कोई भी चुनौती न डरा सके,

प्राणों की बाजी लगा,शत्रुओं को हराएं ऐसे हैं बाँकुरे जवान,
तब स्वतंत्र हवा में सांस हम लेते,हमारे सपने चढ़ते परवान।

उनकी उम्मीद,तसल्ली उनके परिवार की चिट्ठी से जुड़ी है,
और घर जाने की छुट्टी स्नेह और उम्मीद से जुड़ी-कड़ी है।

रहे ये अमर जवान ज्योति सदा,हो सुरक्षित देश की आवाम,
हे वीरों ! शत-शत नमन तुम्हें,है मेरा शत-शत तुम्हें सलाम।

                                                                                        - जयश्री वर्मा