Monday, October 24, 2016

"शुभ दीपावली"मनाएं

चलो दीप पर्व को,इस वर्ष,कुछ अलबेला सा मनाएं,
बुराइयों को बुहार के,आँगन में,खुशियों को ले आएं,
नवल वसन हों,भाव शुभता संग,आपसी प्रेम जगाए,
इस दीपावली को,मिल सब "शुभ दीपावली"बनाएं।

बढ़ाऊं दीपक,मैं हांथों से,और बाती को आप जगाएं,
विपरीत पवन,अगर तेज बहे तो,हथेली ओट बचाएं,
ले चलें उस,अँधेरी चौखट पे,जहां कहीं लगे वीराना,
हाथ बढ़ा के,नेह का सब मिल,जगमग दीप जलाएं।

शब्द सुनहरे आप चुनें,और संग में,सुरलहरी मेरी हो,
राग एक हो,तान एक हो,सबमें स्नेह लहर गहरी हो, 
गीत सरल हो,पकड़ गहन हो,जीवन संगीत सजाएं,
मधुरता से,गूँथ के हृदयों को,अपनत्व धुन बिखराएं।

रंग इन्द्रधनुष के,मैं समेट लूँ,कल्पनाएं आप सजाएं,
अल्पना के बेलबूटों में,सारे रंग,एकता के भर जाएं,
नारंगी,सफ़ेद,हरा रंग सुन्दर,सबसे ही प्रखर लगाएं,
इस दीपावली पर हिलमिल के,शुभता प्रतीक रचाएं।

मैं खुशियाँ,चुनकर ले लाऊँ,मुस्कुराहट आप फैलाएं,
मीठी बातों के संग हम,इक दूजे के,हृदयों बस जाएं,
धोखा,झूठ,मनमुटाव छोड़,मानवता को गले लगाएं,
इस त्यौहार,गले मिल आपस में,भाईचारा अपनाएं।

बिजली के बल्ब न हों,दीपों की झिलमिल लड़ी हो,
चेहरे पे मुस्कराहट सबके,खुशियों की फुलझड़ी हो,
भूखे पेट न सोए कोई भी,हर शख्स तृप्ति रस पाए,
स्वागत,सौहार्द से,मिलजुल सब मिलबांट के खाएं।

न हो उदासी,किसी ओर,खुशियों का अम्बार लगे,
न हो अंधियारा,कहीं पर,दीपक सारे जगमग जगें,
हिलमिल खुशियाँ,उमंग हृदय,अमावस को हराएं,
चलो हम सब मिल संग में"शुभ दीपावली"मनाएं।

                                                        ( जयश्री वर्मा )


Friday, October 7, 2016

कांटे की व्यथा

इक रोज़ पार्क में,बैठा था मैं,इक क्यारी के पास,
तभी आवाज़ आई,कुछ अपरिचित सी,कुछ ख़ास,
फिर चहुँ ओर मैंने,नज़र दौड़ाई,पर दिखा न कोई,
सोचा कि शायद,मेरे अंतर्मन का ही,भ्रम है कोई। 

फिर देखा,इक पौधे का काँटा,मुझको देख रहा था,
कुछ सवालिया सी दृष्टि,मुझ पर ही वो फेंक रहा था,
मैंने पूछा,क्या तुम्हें ही मुझसे,कुछ पूछना ख़ास है?
याकि मुझे यूँ ही,हो चला किसी भ्रम का,आभास है। 

वह बोला,ये सच है मैं तुमसे ही,मुखातिब हो रहा हूँ,
तुम भ्रम न समझो,मैं तुमसे सच में ही,बोल रहा हूँ,
कुछ सवाल हैं मेरे,मुझे तो तुम बस,उत्तर बतला दो,
मेरे मन की,यह उलझन,बस तुम जरा सुलझा दो।

मैं बोला,कि चलो कहो,क्या तुम्हारी प्रश्न-कथा है?
कह डालो,मुझसे आज,जो अंतरमन की व्यथा है,
वह बोला,क्यों भेद बड़ा है,मेरे और पुष्प के बीच?
जबकि एक डाल,रस,एक ही जल से गए हैं सींच।

तुम कवि हो कहो,तुम्हारा विषय,मैं क्यों न बना?
मुझपे,तुम्हारी लेखनी ने,भाव सुंदर क्यों न चुना?
फूल की ही,प्रशंसा पे तुमने,पोथियाँ हैं भर डालीं,
सारी ही सुन्दर उपमाएं,उसके नाम ही कर डालीं।

मैं कितना हूँ बलशाली,ज़रा मुझपे,नज़र तो डालो,
और कुछ,बेहतरीन नज़्में,मुझपे भी तो गढ़ डालो,
मेरी ताकत के आगे,देखो हर कोई,कमजोर पड़े,
मुझे छूने से मानव,तितली,भँवरे और पशु भी डरें। 

ताकत के कारण,उसके सर,दम्भ चढ़ा परवान था,
मैं उसकी घमंड भरी,मुस्कान पे,बहुत ही हैरान था,
मैं बोला कि,बुरा न मानो,तो मैं एक बात कहूँ भाई,
जिसको तुम,गुण समझ रहे,वही तो हैअसली बुराई।

शूल हो तुम,काम तुम्हारा,सिर्फ दुःख और दर्द देना,
सुख न देना कोई,बस,यूँ ही ताकत में,अकड़े रहना,
शूल से ही तो,सूली बनी,जिसका जान लेना काम है,
पुष्प भले ही,नाज़ुक सही,पर दिल मिलाना काम है। 

पुष्प तो,रंग दे जहान को,और खुशबूओं को नाम दे,
जन्म,मृत्यु,विवाह या मंदिर हो,हर जगह ही काम दे,
है पुष्प लचीला,हलकी हवा के,झोंकों में ही झूम ले,
जो भी उसे,प्यार से ले उठा,उसके हांथों को चूम ले।

दिलदार इतना कि,ओस की बूँदें भी,उस पर ठहर सकें,
रंग सुन्दर देख के,पंछी और तितलियाँ,आकर के रुकें,
इस प्यार और त्याग की तो,दुनिया ही पूरी दीवानी है,
गर कवि न मुग्ध हो,तो ये उसकी कलम की,नादानी है।

सारे जहां में रंग बिखेरे,ऐसा तिलस्मयी है उसका प्यार,
चरणों से शीश तक राज करे,ऐसे हैं उसके गुण हजार,
दुनिया भर में,प्रेम दिवस पे,जवां दिलों की वो आस है,
क्या अब तुम्हें अवगत हुआ,क्यों पुष्प दिल के पास है ?  

                                                                  ( जयश्री वर्मा)