Tuesday, September 20, 2016

तुम आ जाओ

तुम आ जाओ कि देखो -
सांझ भी तो अब थकी-थकी सी हो चली है ,
गगन में पंछियों की कतारें लग रही भली हैं,
आपस में कह रहे दिनभर के शिक़वे गिले हैं,
नीड़ की ओर लौटते लग रहे कितने भले हैं,
आके देखो मैंने खुद को भी संवार लिया है,
चौखट पे भी रौशन कर लिया इक दीया है ,
कब से तुम्हारी बाट जोह रही हूँ घड़ी-घड़ी ,
हृदय में हलचल,कुछ सोच रही हूँ पड़ी-पड़ी ,
मैंने पांवों में अपने आलता भी तो है लगाया,
दिल के सोए हुए अरमानों को भी है जगाया,
देखो ज़रा पथिकहीन सूनी सी हो गई हैं राहें,
चाँद ने भी फैला दी हैं अपनी चांदनी की बाहें,
रात की शीतलता भी अब दिल जलाने लगी है,
विकलता भी तो किसी की नहीं हुयी सगी है,
दिन भर सुनती हूँ पपीहे की पीहू-पीहू के ताने ,
सखियों की छेड़छाड़ रहती है जाने-अनजाने,
कि यूँ जाया न करो कहीं दूर इतना तुम हमसे ,
रौशनी की तपन से नहीं,मन सुलगता है तम से ,
देखो अब तो घरों की कुण्डियाँ भी हैं लग गईं ,
और सोए हुए अरमानों की नींदें भी जग गईं ,
आ जाओ तुम कि-
अब मेरी विरह व्यथा इज़हार को तो समझो,
बुझे न मन की ये लौ,अरमान को तो समझो,
अब तो ये दीपक भी कंपकंपाने सा लगा है ,
मेरा इंतज़ार और श्रृंगार भी मुरझाने लगा है,
कि आ जाओ अब वरना मैं बेबसी से रो दूँगी,
तुम हो मेरे फिर भी मैं तुम्हें अपना न कहूँगी।


                                                   ( जयश्री वर्मा )



2 comments:

  1. सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है हर अभिव्यक्ति दिल से शुरू हो कर दिल पे ही दस्तक देती है ....एक सुखद अहसास की भांति

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    1. कविता के मर्म को समझने के लिए आपका धन्यवाद संजय भास्कर जी !

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