Saturday, June 27, 2015

चोरनी हो तुम !

होंठों की लाली और,ये कपोलों की आभा गुलाबी,
फूलों की रंगीन सुर्खियां चुरा के रूप में सजाया है। 

छलिया भवरों की लेके चटक काली सी कालिमा,
काजल का नाम दे तुमने इन नयनों में बसाया है।

चाल भी तो चुराई है चंचल सी,चंचला हिरनी की,
चपलताओं की परिभाषा को,यूँ साक्षात बनाया है।

विभिन्न कलाएं चुराईं हैं,रूप बदलते चन्द्रमा से,
गुन गहन देख कर,ये गुणी चाँद भी शरमाया है। 

ये रंग लिए हैं सारे,तितली के रंगभरे परों से चुरा,
परिधानों बीच अपने,उन सभी रंगों को रचाया है। 

मिठास भी चुराई है बोली की,कोयल की कूक से,
झंकृत से शब्दों के संग,सारा समां ये चहकाया है।

बदलियों से चुराई है तुमने चाँद को छुपाने की कला,
के लटों से वैसे ही अपने मुखमण्डल को छुपाया है।

चोरनी हो तुम! तुमने मेरे दिल,ख़्वाब तो लिए हैं चुरा,
बल्कि पलकों के नीचे से,मेरी नींदों को भी चुराया है।


                                                                                                        जयश्री वर्मा
                                                                                                                                                                    

4 comments:

  1. वाह...बहुत अच्छे ..काफी दिनों बाद आपके ब्लॉग तक पंहुचा हूँ ...काफी बदलाव देखने को मिल रहा है

    कई दिनों बाद ऐसी कविता पढ़ने को मिली, जिसने मुझे छू लिया.....!

    सादर
    संजय भास्कर

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    1. शुक्रिया ! किसी भी रचना को सार्थक होने के लिए पाठकों का होना और उनके विचार जाना बहुत ज़रूरी है! आपकी प्रतिक्रिया के लिए सादर धन्यवाद !

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  2. चोरनी हो तुम वह्ह्ह्ह्ह्ह्ह

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आपका संजय भास्कर जी !

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