Friday, November 28, 2014

शुक्रगुज़ार हूँ तुम्हारा !

आज तेरी यादों ने मन की राहों को ऐसे मोड़ा है ,
कि भरे जग में मुझे यूॅ वीरानियों में लाके छोड़ा है ,
घेरे हुए हैं मुझे चहुंओर से तेरे तमाम अफ़साने , 
वो तुम्हारा हॅसना,रूठना,मनाना जाने-अनजाने। 

ये मन तमाम कोशिशों बावजूद जकड़ता जाता है ,
बेबस हो तुम्हारी यादों का हाथ पकड़ता जाता है ,
चला आया हूँ जहां पे सारी कोशिशें बेमानी सी हैं ,
ये जग सारा और उसकी ये जीवंतता पानी सी है।  

कि इक सुख है अजीब इस बेरुखे एकाकीपन में ,
जहां मैं हूँ और बस साथ तेरे सपने हैं अंतर्मन में ,
लोग तो इसे मेरा अजीब दीवानापन ही कहते हैं ,
कुछ बेचारा,दुखियारा और कुछ परवाना कहते हैं। 

वो नहीं समझते कि जीवन का एक रूप यह भी है ,
हम जैसों के लिए मौसम की धूप-छाँव ऐसी भी है ,
इस मेरे कल्पनालोक में मेरे जन्मों का प्रेम रहता है ,
जो हम सरीखों के किस्से दोहराता और कहता है। 

यहां सुखद प्रेमभरी,अपनत्वभरी निजता की बातें हैं ,
जहां कुछ भी विलगाव नहीं बस उम्मीद से भरी रातें हैं ,
इस संसार में जहां विछोह,कटुता,धोखा और धृष्टता है ,
 पर ये मेरा प्रेम-संसार सिर्फ प्रेम में ही रचता-बसता है। 

मौसम,फूल,पंछी देखो सब के सब सुहाने से हो गए हैं ,
भागते हुए से विचार भी जहां के मनमाने से हो गए हैं ,
शुक्रिया है ऐ जमाने तेरा ! कि मुझे नए से तराने दिए हैं ,
शुक्रिया है तुम्हारा इस नई दुनिया से मिलाने के लिए। 

                                         
                                                                              - जयश्री वर्मा 



Thursday, November 13, 2014

ज़माना हमारा-तुम्हारा

वो पर्दों के अंदर चुपके-छुपके झांकती निगाहें,
लाज भरी खिलखिलाहटें औरसिमटी सी बाहें,
कहीं पे खो सा गया है शर्मिंदगी का वो उजाला,
आधुनिकता ने आज सबको बेबाक बना डाला।

अब बागों में है कुछ सहमी सी हवा की रवानी,
वो सूखे दरख्तो पे गूंजती हरियाली की कहानी,
वो भवरों का कलियों-फूलों में सुगंध को ढूंढना,
अब जैसे है बेरौनक फूलों की बुझी सी जवानी।

विवाह जोड़ मिलाना सुसम्पन्न वर-वधू प्यारे,
अब बेलगाम बातें हैं और बेलगाम से हैं इशारे,
क्यों बेरौनक से हो चले ख्वाब युवाओं के सारे,
लिहाज़ छोड़ अब बेशर्मी का समां सा छा गया।

न बड़ों का सम्मान है न छोटों से है कुछ लगाव,
बस दिखता है सिर्फ अपने सुख-दुःख का बहाव,
ज़माना कहाँ से चला था और अब कहाँ आ गया,
आज की उच्श्रृंखलता ने देखो अदब मार डाला।

न दादी की बातें हैं और न है अब नानी का प्यार,
न रहे खेल निश्छल निराले,न झूले और बरसात,
टी०वी०,कम्प्यूटर के हिंसक खेल के अब ज़माने,
ये बच्चे भटककर आज अनजाने ही कहाँ आ गए।

ये फिसलन है गहरी जो अब नहीं है रुकने वाली,
बस बेख़ौफ़ उच्श्रृंखलता और बात-बात में गाली,
स्वार्थ को सिर्फ जानते हैं परमार्थ से है किनारा,
अब खो गया है वो कहीं-ज़माना हमारा-तुम्हारा।

                                               ( जयश्री वर्मा )