Wednesday, October 29, 2014

मैंने कब कहा ?

मैंने कब कहा प्रिय कि मुझे तुमसे बेहद प्यार है ?
हर पल,हर घड़ी बस सिर्फ तुम्हारा ही इंतज़ार है,
वो तो निगाहें हैं जो कि उठ जाती हैं हर आहट पर,
ढूँढती हैं तुम्हारी छवि,इनका वश नहीं है खुद पर ,
कि जैसे आ ही जाओगे तुम कहीं से और कभी भी,
इक इच्छा सी है अंदर,कुछ जगी सी,कुछ बुझी सी।

मैंने कब कहा कि सबके बीच तुम्हें याद करती हूँ ?
कि बातों में तुम बसे हो तुम्हारा ही दम भरती हूँ,
वो तो ज़ुबान है की बरबस ही तुम्हारा नाम लेती है,
और मेरी बातों में दुनिया तुम्हारा अक्स देखती है,
न,न मैं तो जिक्र भी नहीं तुम्हारा करती हूँ कभी,
पशोपेश में हूँ मैं,न जानूँ ये गलत है या फिर सही।


मैंने कब कहा,मैंने अपना दिल तुमको है दिया ?
और इस जीवन भर का वादा तुमसे ही है किया,
ये तो मेरी रातें हैं जोकि मेरा मजाक सा उड़ाती हैं,
न जाने मुझे क्यूँ बरबस ही ये रात भर जगाती हैं,
ख्वाब भी जो थे मेरे,तुम्हारे ही साथ में हो लिए हैं,
तुम्हारी ही सूरत से जैसे सारे नाते जोड़ लिए हैं ।

पर शायद कुछ ऐसा हो रहा है,अंजाना सा मेरे संग,
घेर रहे हैं तुम्हारे याद बादल,ले के साजिशों के रंग,
ये बादल बेरहम मुझे तन्हा नहीं छोड़ते हैं कभी भी,
छाए रहते हैं मनमस्तिष्क पे हरपल और अभी भी,
पर फिर भी इसका मतलब,इसे इकरार न समझना,
मुझे तुमसे प्यार है ये हरगिज़-हरगिज़ न समझना।

                                                ( जयश्री वर्मा )



Wednesday, October 15, 2014

भविष्य नया ढूंढूंगी

लो मैंने तोड़ दिए अब,सब तुम्हारे ये बंधन ,
तुम्हारे दोषारोपण और तुमसे ये अनबन ,
अब और नहीं जागूंगी मैं और नहीं रोऊंगी,
काल की किताब के मैं पृष्ठ नए खोलूंगी।
अपनों का साथ छोड़,तुम्हारे संग मैं आई थी ,
आँखों में सपने और प्यार भी अथाह लाई थी ,
पर ये कैसा जीवन और कैसा ये संसार था ,
बाहों का सहारा नहीं,काँटों भरा यह हार था।

कैसा ये आँगन था और कैसा था ये घरबार ,
सब कुछ था यहाँ,न था अपनत्व और प्यार ,
आशीर्वाद की छाँव नहीं,था आँखों का अंगार ,
एक-एक कर बिखरा मेरा सपनों का संसार।

भले जग पुरुष प्रधान पर उतना ही हमारा है,
न हो कोई साथ पर संग में आत्मबल हमारा है,
बिन तुम्हारे सहारे,मैं भी कमजोर नहीं पड़ूँगी,
आक्षेप,कठिनाई कुछ भी हो सबसे ही लड़ूंगी।

माना इस संस्कृति में,जीवन दो हैं हर नारी के,
एक जन्म के संग मिला तो दूजा संग है शादी के,
हर हाल समझौता करना यही धर्म रीत सिखाई,
पूर्ण सामर्थ्य किया सब कुछ फिर भी बेवफ़ाई।

मैं भी हूँ मनुष्य और ये सुन्दर जग मेरा भी तो है,
जीवन माधुर्य सभी,मुझे भी महसूस तो करना है,
नहीं जाएगा जन्म निरर्थक ठानी है जब मन की,
मेरी भी जवाबदेही है आखिर मेरे इस जीवन की,

बस-बस-बस मुझे अब अति और नहीं सहना है ,
भावों के आवेश में मुझे अब और नहीं बहना है ,
बना लूंगी रास्ते और भविष्य अपना नया ढूंढूंगी ,
अस्तित्व नहीं खाऊँगी मैं अब कैसे भी जी लूंगी।


                                                                  ( जयश्री वर्मा )