Wednesday, June 18, 2014

सर्वस्व समर्पण

हारता सा यह मन,प्रिय आज मेरा ,
बन रही हूँ आज मैं कण्ठ-हार तेरा ।


भावातुर इस हृदय की भाव-सरिता ,
ऋतुओं की बनकर मैं आज कविता ।

मुक्ति छोड़ आज मैं बंधने को तत्पर ,
पाने को अनेकों गूढ़ प्रश्नों के उत्तर ।

श्यामल भाल की बिंदी का कौमार्य ,
यौवन-ताप के अछूते भार का सार ।

सृष्टि की गंध संग,अतृप्ति की तृप्ति ,
मौन के गुनगुनाते संगीत की वृष्टि ।

थरथराते कदम रूप की बहती धारा ,
अमर अदृश्य प्रेम की अदभुत कारा ।

कराने को पान यह जीवन रस अमृत ,
लुटाने को सर्वस्व अपना मैं उदधृत ।

चुप-चुप चंचल हो,यह विश्व समीर जब ,
अर्पण हो मेरा सब अस्तित्व तुझे तब ।

पाने को आतुर मैं तुम्हारे हृदय में शरण ,
हे नाथ!मेरा यह जीवन करो तुम वरण ।

जब कल के प्रभात का रवि मुस्कुराएगा ,
देने को मुझमें तब नव,कुछ न रह जाएगा ।

                                               ( जयश्री वर्मा )
 






3 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, आभार आपका।

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    1. आपका बहुत - बहुत धन्यवाद राजेंद्र कुमार जी !

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  2. मेरी रचना पर आपकी टिप्पणी के लिए आभार आपका संजय भास्कर जी !

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