Wednesday, April 23, 2014

लकीर और वज़ूद

वक्त के साथ -
संसार में तो -
चला आया मैं,
क्यों आया ?किस लिए आया ?
सवाल - जवाबों के साथ,और,
समाज की खींची लकीरों के साथ,
सामंजस्य बिठा कर बड़ा हुआ।
कुछ - कुछ समझा उन लकीरों को,
कभी ठीक तो कभी,
उबाऊ सा लगा -
चलना उन खींची हुई लीकों पर !
लीक बदलकर मैंने -
नई लकीर खींची,अपने लिए,
कुछ ने सराहा,
कुछ ने विरोध किया !
मैंने ये जाना -
लीक से हट कर नई लकीर खींचने वाले,
सफल लोग कहलाते हैं - पथ प्रदर्शक !
और जो -
उन नई लकीरों से भी आगे -
कोई नई लकीर खींच लें जाएं -
वो कहलाते हैं -
युग दृष्टा,अनुकरणीय,पूजनीय !
कोशिश कर रहा हूँ,
मैं कौन सी लकीर खींच कर,
किस पर,
कहाँ तक चल सकूंगा !
इसी कोशिश में
मैं लकीरें -
खींच और मिटा रहा हूँ,
अपना वजूद बना रहा हूँ।

                                         ( जयश्री वर्मा )


 

6 comments:

  1. बेजोड़ अभिव्यक्ति..... विचारणीय बात है

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  2. इस कविता पर आपके विचार व्यक्त करने के लिए आपका बहुत - बहुत शुक्रिया डॉ. मोनिका शर्मा जी !

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  3. खुबसूरत अहसास बेहतरीन अंदाज..

    सच कहती पंक्तियाँ .
    Recent Post …..दिन में फैली ख़ामोशी

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    1. बहुत - बहुत धन्यवाद संजय भास्कर जी आपके द्वारा दी गई प्रतिक्रिया के लिए !

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  4. यह कविता मेरे और मेरी भावनाओं को पूर्णतः अभिव्यक्त करती है. पढ़कर लगा अपनी ही डायरी का कोई पन्ना कवितारूप में पढ़ रही हूँ. सोचने पर विवश करती यह रचना अतिसुन्दर है.

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    1. इतनी जीवंत प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद ऋचा जी !

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