Thursday, February 6, 2014

कब तक

एक और नया दिन,
मैं बैठी हूँ
लाइब्रेरी में
आज मेरी बारी है-
लाइब्रेरी सम्हालने की,
काश !
सोचने की भी
कोई बारी होती
कोई सीमा होती,
दो कूलर और
छः पंखे भी
असमर्थ हैं-
मेरे दग्ध हृदयको
शांत करने के लिए
उफ़ !
कितना गर्म
धधगता हुआ हृदय
कितने लोग बैठे हैं यहाँ
फिर भी
कितनी शान्ति
फिर - मेरे मन में क्यों नहीं ?
कभी - कभी
सोचते - सोचते
मन खाली हो जाता है
एकदम शून्य
सूने आकाश की तरह
पर शांत नहीं
वो खालीपन भी
हलचल युक्त !
तेज गति से
तुम्हारे पीछे
भागता मन !
मैं और तुम्हारी स्मृति बस
स्मृतियों के जाले
और उसमें उलझी मैं
असमर्थ मकड़े की तरह
जो अपने जाल में
खुद ही फंस गया हो !
किसी तरह खुद को
छुड़ा कर भागती हूँ
भागती जाती हूँ
मीलों
इस दुनिया से दूर
बहुत दूर
थक कर चूर हो जाती हूँ
लेकिन हाथ कुछ नहीं आता
केवल मृगतृष्णा
कब तक दौड़ती रहूंगी
न जाने
यूँ ही
तुम्हें पानी समझ कर।

                               ( जयश्री वर्मा )

4 comments:

  1. Replies
    1. राजीव कुमार झा जी , कविता पर प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत - बहुत धन्यवाद !

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  2. "काश !
    सोचने की भी
    कोई बारी होती
    कोई सीमा होती,......"
    सत्य! :) सुन्दर रचना है.

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    1. जीवन है तो विचारों की उड़ान भी है,सोचने की कोई सीमा नहीं,कोईअन्त नहीं ! कविता पर प्रतिक्रिया के लिए बहुत - बहुत धन्यवाद ऋचा जी !

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