Monday, December 9, 2013

अंजाना एहसास

जब उस दिन गहरे नयनों की
मैं कुछ भाषा पहचान सकी
बस,तबसे इस जीवन दुःख की
मैं कुछ सार्थकता जान सकी । 

बरबस बरस पड़े नयन घन
उसके जाने के बाद आज -
उसकी आती छवि ने हंसकर
बांहें दीं बरबस गले डाल। 

मैं बही जा रही मौन विवश
भाव - सरिता में लक्ष्यहीन
रह कर सागर के हृदय बीच
मैं सुख सपनों की प्यासी मीन।

चाहूँ कितना,सब कुछ,कह डालूं
जड़ हुए उर,ओंठ,पलक और तन
खुद समझ न पाऊँ मैं क्या चाहूँ
बस तरस गया मेरा यह मन।
                 
                                         ( जयश्री वर्मा )


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