Friday, June 28, 2013

अब रोक ले अपना क्रोध


हे माँ धरती !

अब रोक ले सभ्यता निगलती,गरजती,अपनी गंगा ये ,
और अब तू थाम ले,अपने फिसलते ऊँचे-ऊँचे पर्वत ये।

हमने अज्ञानता में आकर,जो कुछ हानि तुझे है पहुंचाई,
ये अविवेकी काम गलत था,ये बात समझ हमें न आई।

हमने विकास के नाम माता,स्व विनाश रचना कर डाली,
नदियाँ रोकीं ये पर्वत फोड़े,तेरी छाती छलनी कर डाली।

मत दे सब जीवों को हे माँ!यूँ तू असमय प्रहार काल का,
न छीन साँसें,सपने और अपने,न दे यूँ श्राप अकाल का।

माना हमने अविवेकी सोच से माँ!तेरे हरेभरे वृक्ष हैं काटे,
पर्यावरण खिलवाड़ कर हमने,तुझको दर्द ही दर्द हैं बांटे।

माना हम मानव दोषी हैं तेरे,फिर भी आखिर बच्चे हैं तेरे,
अब  क्रोध रोक ले माँ तू अपना, क्षमा दान हमें अब दे दे।

सुन ले रुदन,क्रंदन माँ सबका,अब रोक ले अपना क्रोध,
विकास की दौड़ में नहीं था,हमको इस विनाश का बोध।

हे माँ!हमको नहीं था-इस विनाश का बोध।

उत्तराखंड की आपदा पर, धरती माँ अब रहम कर !

                                                         
                                                                                                ( जयश्री वर्मा )



हे शिव-
रोक ले अपनी गरजती गंगा अब
और समेट ले बिखरी जटाएं सब 
सम्हाल इन बिखरते किनारों को
मत छीन अब मेरे जीवन सहारों को
न छीन यूं रिश्तों का प्यार दुलार
न कर अब और निष्ठुर व्यवहार
हे केदार !हे श्रृष्टि विचारक !अब रहम कर
क्रोधित होकर देव भूमि तू यूँ मरघट न कर
अब रोक दे अपना क्रोध-
विकास की दौड़ में हमें नहीं था विनाश का बोध।
हे शिव -हमें नहीं था विनाश का बोध।
                                                     

उत्तराखंड की आपदा पर !शिव से याचना !


                                                    ( जयश्री वर्मा )

Saturday, June 22, 2013

उफ्फ नेता जी

कहिये नेता जी आपका कैसा और क्या हाल है,
क्यों दीखते परेशांन हैं और क्यों हाल बेहाल है,
क्यों कर डाले इतने घोटाले,कांड और हवाला,
अब झुलसा रही है क्यूँ आपको प्रश्नों की ज्वाला ?
खुद तो खाया ही और ,रिश्तेदारों को भी खिलाया,
नोटों की गड्डियों से क्यों अपना ऊंचा महल बनाया,
महल क्या अपने लिए तो खुद ही कब्र बना डाली,
थू-थू कर रहे वो भी जो घर की करते थे रखवाली।

क्यों कमाई आपने लाखों,करोड़ों,अरबों की संपत्ति,
अब कैसे बचोगे इससे,जो ऊपर टूटी घोर विपत्ति ?
अब जब कुर्सी गई है छिन,तो मन क्यों हुआ है खिन्न,
इस पल अपराधी से आप,बिलकुल भी नहीं हैं भिन्न।

खुद का सम्मान पाने का था,दम्भ क्यों इतना भारी,
रिश्तेदारों को आगे बढ़ाने की,ऐसी क्या थी लाचारी,
आपकी तनख्वाह से ही,आपका तो काम चल जाता,
रोटी,कपडे की जरूरत पूरी हो मकान भी बन जाता।

अनाप-शनाप खाने से,आपकी तोंद भी न इतनी बढ़ती,
और जनता भी भूख से त्रस्त हो,दो रोटी को न लड़ती,
देश के नोटों को भरते आपको बिलकुल लाज न आई,
जनता और जेल की आपको बिलकुल भी याद न आई?

देश से आपने कुछ वादे किये थे,शपथ ग्रहण के समय,
फिर क्यों देश का पैसा लूटा,दांव लगाए समय-असमय,
जनता के सवाल-जवाबों से,अब आप नहीं बच पाएंगे,
ये अपमान,कलंक अब आपके जीवन संग ही जायेंगे।

अच्छा होता देश का पैसा आप,देश विकास में लगाते,
कुर्सी बचती,गरीबी हटती,और सम्मान भी खूब कमाते,
जनप्रतिनिधि बनकर आए थे,धन कुबेर कैसे बन गए,
देवदूत का रोल मिला था,तो फिर दानव कैसे बन गए।

                                                     ( जयश्री वर्मा )









Thursday, June 6, 2013

क्रिकेट और सट्टा

अरे ओ सट्टेबाजों ये तुमने कैसा किया घोटाला,
पूरा का पूरा क्रिकेट मैच ही पैसों से खरीद डाला,
बीसीसीई के सारे अधिकारी भी तकते ही रह गए,
और खिलाड़ी हम दर्शकों को ठगते ही चले गए।

हमें क्या पता था की बैट,बॉल और विकेट की तरह,
ये छोटे-बड़े महान क्रिकेट खिलाड़ी भी बिकाऊ हैं,
ये जो क्रिकेट मैच जोर शोर से चल रहा है यहाँ -वहाँ,
सारा का सारा टाइम-पास बस धोखा और दिखाऊ है।

न सोचा कि भारतीयों की धड़कन बसती है क्रिकेट में,
दोस्तों की दिन-रात की बातें हैं बस बॉल और विकेट में,
हम खाना-पीना भूलकर क्रिकेट को देते हैं प्राथमिकता,
चाहे कोई जरूरी काम हो चाहे कोई भी आवश्यकता।

अगर बोर्ड एग्जाम में क्रिकेट मैच लिखने को आता है,
तो बेटा पढ़ाई छोड़छाड़ टीवी के सामने ही डट जाता है,
पापा,मैच जब पूरा देखूँगा तभी तो निबन्ध लिख पाऊंगा,
फिक्सिंग के पॉइंट्स बताओ तभी तो नंबर पूरे लाऊँगा।

खिलाड़ियों की फोटो काटकर हम किताबों में रखते हैं,
उनके बड़े-बड़े पोस्टर हमारे घर की दीवारों पर सजते हैं,
पैसा कमाने का ये जो शार्ट-कट खिलाड़ियों ने निकाला है,
उस शार्ट-कट ने उनका खेल-जीवन ही शार्ट कर डाला है।

                                                                                            ( जयश्री वर्मा )

 





 















 

Monday, June 3, 2013

क्यों भला

जिस तरह से चले गए हो तुम,ऐसे भी कोई जाता है भला ?
सावन के बीच भी कोई,क्या वीराने के गीत गाता है भला ?

अभी बस एक ही साल तो हुआ था,मुझे तुमसे यूँ जुड़े हुए,
पूरे दिखा भी नहीं पाई,कुछ दिल के पन्ने रह गए मुड़े हुए।

रूठ के गए हो वहाँ के जहाँ से मैं,बुलाकर मना भी न सकूं,
घायल सी यादों को समेट-समेट,तुम्हारी तस्वीर बना न सकूं।

कि-कंगन,चूड़ी,बिछिया,टीका, अब सब हराम हैं मेरे लिए,
अब जब तुम ही नहीं तो,मैं श्रृंगार करूँ भी तो किसके लिए।

मेरे पास प्रिय पुकारने वाली,तुम्हारी कोई निशानी भी नहीं,
कि जिसे तुम्हारा नाम ले,गले से चिपटा लूं,रोलूं कभी -कभी।

अभी तो मैं-न रूठ,न झगड़,न कोई हठ,कर पाई थी तुमसे,
क्यों किस्मत ही रूठ गई है,न जाने कब क्या भूल हुई मुझसे।

देखो न अकेलेपन में यूँ ही,कितनी स्वार्थी हुई जा रही हूँ मैं,
अपना ही दुःख सोच-सोच बस,अपनी ही कहे जा रही हूँ मैं।

जानती हूँ अचेतन होते -होते भी,तुमने मेरा नाम पुकारा होगा,
बेबस निगाहों को तुम्हारी,भीड़ में मेरे दिखने का सहारा होगा।

                                                                  ( जयश्री वर्मा )