Monday, May 20, 2013

रिश्तों का खेल

जन्म के साथ ही ये रिश्ते जन्मे,
और मात-पिता के सपने चमके,
नामकरण कर पहचान इक बनाई,
और किताबों की शिक्षा पूर्ण कराई।

थोडा बढ़ा जब तरुणाई आई,
विचारों में तब हरियाली छाई,
चहुऒर धड़कते दिल ही दिखते,
बनते नए दोस्त और बिछड़ते ।

जवानी में अर्थोपार्जन का संघर्ष,
फिर इक नई पहचान बनने का हर्ष,
जीवन साथी संग घर जब बसाया,
तब सुख-सपनों संग उसे सजाया।

अगली पीढ़ी की किलकारी के संग,
और पिछली पीढ़ी के छूटने का ढंग,
बूढ़े -पुराने,बारी-बारी विदा हो गए,
काल के गर्त में,जाने कहाँ खो गए।

अनुभवों संग साक्षात्कार जब हो चला,
समय के साथ मैं भी जब वृद्ध हो चला,
बच्चों की जवानी देख सब दुःख भूला,
सच है जीवन उतार-चढ़ाव का झूला।

एक दिन तब ऐसा मेरे संग भी आया,
काल ने जब मुझको भी पास बुलाया,
जग छूटा,अपने और सपने सब छूटे,
नेत्रों में वेदना और विदा के आँसू फूटे।

बस सारे रिश्ते-नाते तोड़ चल दिया,
यूँ सबको बिलखता छोड़ चल दिया,
मेरे निष्प्राण शरीर को पूजा-सजाया,
फिर सबने मिल शमशान पहुँचाया।

                                                ( जयश्री वर्मा )




No comments:

Post a Comment