Thursday, June 14, 2012

झंझावात

                                                      
अपने उलझे मन की गुत्थी सुलझाओ,
अब बस तुम इन पीड़ाओं से पार पाओ,
देखो तो सब कुछ नहीं है उलझा-उलझा,
इन उलझनों से तुम स्वयं को बचाओ।
मन की नकारात्मक सोच को तो छोड़ो,
सहजता की तरफ ये मन अपना मोड़ो,
उतार-चढ़ाव ही है इस जीवन का खेल,
जैसे धरती,पर्वत,नदी,सागर का मेल।

ये ज़िन्दगी सरल-सपाट नहीं होती है,
हर रात की एक उजली सुबह होती है,
इन झंझावातों से भी उबर ही जाओगे,
मान लोगे हार फिर कैसे जी पाओगे ?

इन विविधताओं से यूँ घबराते नहीं हैं,
बंद कमरे में दीवारों से टकराते नहीं हैं,
फिर से खुद को इक नई चाह से जोड़ो,
जीवन के प्रश्नों को नई राह पे मोड़ो।

फिर हर पेचीदा सवाल के हल भी मिलेंगे,
राहों में  तुम्हारे सफलता के फूल खिलेंगे,
पर पहले खुद से ही यूँ टकराना तो छोड़ो,
और जीवन को नित नए अर्थों से जोड़ो।

राहें खुलेंगी जब तो सब कुछ सरल बनेगा,
ये बीता बुरा वक्त तुम्हें फिर नहीं खलेगा,
लेकिन पहले खुद के मन को तो समझाओ,
अपनी निराशा की गुत्थी को तो सुलझाओ। 

                                                         (जयश्री  वर्मा )


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